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आश्रम व्यवस्था क्या है? इसके प्रकार तथा महत्व का वर्णन कीजिए (Aasram vyavastha kya hai? iske prakar tatha mahatva ka varnan keejiye)

मानव जीवन में तथा मानव समाज में आश्रम व्यवस्था किस प्रकार से कार्य करती है और किस प्रकार से यह मानव जीवन के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित होता है आधुनिक युग में आश्रम व्यवस्था का बहुत कम ही महत्व है लेकिन आज के लगभग 20 साल पहले आश्रम व्यवस्था एक बहुत ही जटिल व्यवस्था थी जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन को सुख में बनाता था तथा धन्य बनाता था और अपने जीवन के प्रत्येक पहलुओं से निपटने के लिए हमेशा तत्पर रहता था आज के इस पोस्ट में हम आप लोगों को आश्रम व्यवस्था क्या है? आश्रम व्यवस्था का क्या अर्थ है ? तथा यह कितने प्रकार का होता है ? और मानव जीवन में यह किस प्रकार से उपयोगी साबित हुआ है इसके बारे में यहां पर संपूर्ण जानकारी आप लोगों को प्रदान करने वाले हैं यह समाज से जुड़ा हुआ प्रश्न है जो कि समाजशास्त्र के लोगों के लिए काफी महत्वपूर्ण प्रश्न है और इसका बहुत ही सटीक ढंग से यहां पर आपको जानकारी प्राप्त हो जाएगी व्यक्ति का जन्म 4 पुरुषार्थ की पूर्ति के लिए होता है जिसमें चार आश्रम बनाए गए हैं अतः चारो आश्रम में जीवन निर्वाह करते हुए व्यक्ति पुरुष होने का अर्थ को प्राप्त करता है और अंत में उसे मुक्ति मिलती है जिसे मोक्ष भी कहा जाता है और वह इस संसार में जन्म मरण के बंधन से हमेशा हमेशा के लिए मुक्त हो जाता है तथा ईश्वर में विलीन हो जाता है

आश्रम व्यवस्था क्या है? (aasram vyavastha kya hai)

आश्रम का अर्थ विश्राम होता है जहां पर रोककर मनुष्य विश्राम करता है ऐसे स्थान को आश्रम कहा जाता है साधारण अर्थों में तमाम लोग आश्रम का अलग-अलग अर्थ लगाते हैं लेकिन समाजशास्त्र में आश्रम का अर्थ विश्राम से लिया जाता है जो कि मानव जीवन को चार आश्रम में विभक्त किया गया है जिसमें व्यक्ति की आयु 100 साल मानकर 25 25 वर्षों मेंप्रत्येक आश्रम को विभाजित किया गया है जिसमें प्रत्येक आश्रम में निवास करता हुआ व्यक्ति एक आश्रम से दूसरे आज तक आश्रम में प्रवेश करता है और अपने जीवन जीने के लिए तथा आने वाले आश्रम के बारे में अनेक बातों को सीखता है इस व्यवस्था को ही आश्रम व्यवस्था कहा जाता है प्राचीन काल में यह व्यवस्था बहुत ही प्रभावी रूप से काम करती थी और अपना जीवन जीते हुए व्यक्ति चार पुरुषार्थ की पूर्ति करता था तथा अंततः ईश्वर में विलीन हो जाता था अतः वे चार आश्रम कौन-कौन से हैं आइए जानते हैं

  • ब्रम्हचर्य (bramhcharya)
  • गृहस्थ (grihasth)
  • वानप्रस्थ (vanprasth)
  • सन्यास (sanyas)

आश्रम के प्रकार व महत्व (aasram ke prakar va mahatva)

आश्रम मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं जो कि हम यहां पर आप लोगों को विस्तृत रूप से चारों आश्रम के बारे में पूरी जानकारी आपको प्रदान करने वाले हैं इसके पश्चात आप इन चारों आश्रमों के महत्व के बारे में भी जानेंगे जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन कीपरम लक्ष्य जिससे मुक्ति कहा जाता है उसकी प्राप्ति करता है और ईश्वर में विलीन हो जाता है

1-ब्रम्हचर्य आश्रम (brahmcharya aashram)

मानव जीवन के लिए ब्रह्मचारी आश्रम काफी ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है जो व्यक्ति के जन्म से लेकर 25 वर्षों तक होती है इस अवधि में व्यक्ति का पालन पोषण तथा शिक्षण कार्य होता है जिसके अंतर्गत उपनयन संस्कार भी किया जाता है और गुरुकुल में जाकर उस बालक को पूर्ण रूप से शिक्षित किया जाता है तथा उसे गृहस्थ जीवन के बारे में अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है जिसकी मदद से वह अपने जीवन में आने वाली सभी समस्याओं से निपटने के लिए सदैव तत्पर रहता है 25 वर्षों तक वह बालक सन्यासी की भांति गुरुकुल में रहकर अपने गुरुदेव की आज्ञा से शिक्षा ग्रहण करता है तथा 25 वर्षों तक उसका शिक्षण कार्य समाप्त हो जाने के पश्चात उसकी ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि समाप्त हो जाती है

महत्त्व (value)

ब्रह्मचारी आश्रम का महत्व मानव जीवन में बहुत ज्यादा होता है क्योंकि अपने जीवनमैं लगभग सभी चिड़िया सीढ़ियों पर चढ़ने की कला उसे ब्रह्मचर्य आश्रम में ही प्राप्त हो जाती है उदाहरण के लिए आप मान सकते हैं कि किसीपेड़ की समस्त टहनियां उसकी जड़ के आधार पर ही हरी-भरी रहती हैं और टिकी हुई होती हैं ठीक उसी प्रकार से मानव जीवन का संपूर्ण जीवन सिर्फ ब्रह्मचर्य आश्रम पर ही निर्धारित होता है कि वह व्यक्ति किस प्रकार का है उसके आदत कैसे हैं तथा उसके संस्कार और संस्कृति किस प्रकार से हैं अतः जिस प्रकार से संस्कार वह अपने ब्रह्मचर्य आश्रम में ग्रहण करता है ठीक वैसा ही आचरण उसका आजीवन हो जाता है और वह व्यक्ति उसी प्रकार का बन जाता है इसलिए ब्रह्मचर्य आश्रम मानव जीवन के लिए काफी ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है

2-गृहस्थाश्रम (grihsthashram)

25 वर्ष पूरा होने के पश्चात व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है तथा वाह विवाह करने के पश्चात धन अर्जित करता है और गृहस्थाश्रम में वह अपने 4 पुरुष और 2 में से 3 पुरस्वार्थों की पूर्ति करता है जिसके वजह से गृहस्थाश्रम काफी महत्वपूर्ण आश्रम बताया गया है गृहस्थ आश्रम में रहते हुए व्यक्ति धर्म के द्वारा धन को अर्जित करता है जो कि उसे अपने ब्रह्मचर्य आश्रम में सीख मिलती है उन संस्कृति और संस्कारों के अनुसार वह धन कमाता है तथा उस धन से अपने परिवार का भरण पोषण करता है तथा धर्म करता है विवाह के पश्चात दो आत्माओं का मिलन होता है जो कि पति पत्नी का संबंध के रूप में देखा जाता है इस संबंध के द्वारा वह अपने वर्ष को चलाने के लिए संतानोत्पत्ति करता है जिसके द्वारा वह अपने पितृ ऋण से मुक्त हो जाता है इस प्रकार से वह 50 वर्षों तक गृहस्थाश्रम में अपना जीवन निर्वाह करता है

महत्त्व (value)

मानव जीवन में गृहस्थाश्रम का महत्व काफी ज्यादा बताया गया है क्योंकि गृहस्थाश्रम में व्यक्ति का नया जन्म होता है जो कि उसके विवाह के समय होता है और विवाह के पश्चात दो आत्माओं का मिलन होता है तथा 25 से 50 वर्ष की उम्र में ही वह व्यक्ति चार पुरुषार्थ में से तीन पुर स्वार्थों की पूर्ति करता है तथा ब्रम्हचर्य आश्रम में सीखे गए जीवन जीने की कला ओं का उपयोग करने के पश्चात वह अनेक प्रकार के संघर्षों का सामना करते हुए अपना जीवन यापन करता है तथा अपने वर्ष को चलाने के लिए संतानोत्पत्ति गृहस्थ आश्रम में ही होता है इसलिए यह आश्रम काफी महत्वपूर्ण माना जाता है

3-वानप्रस्थ आश्रम (vanprasth aasram)

50 वर्ष पूरा होने के पश्चात व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने के बाद वह अपना घर परिवार और सभी धन दौलत की लालच को त्याग कर वन की तरफ चल देता है और बन जाते हुए वह अपने साथ पत्नी को भी ले जा सकता हैअपने बच्चों के जिम्मेदारी पर घर के सभी कार्य सौंपने के पश्चात वह घर से जंगल की तरफ निकल जाता है और जंगल में रहते हुए वह भगवान का स्मरण करता है तथा तीन पुर स्वार्थों की पूर्ति करने के पश्चात वह अपने चौथे पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति के लिए अग्रसर होता है और इस वजह से वह धन-संपत्ति और पुत्रों की लालच को त्याग कर ईश्वर की तरफ अपना मन आकर्षित करता है

महत्त्व (value)

ईश्वर की प्राप्ति के लिए काम, क्रोध ,मद और लोभ इन चारों विचारों का परित्याग कर रहा होता है इस वजह से जब 50 वर्ष के पश्चात व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता है तो इन सभी विचारों का परित्याग करने के लिए वह अपने सभी सगे संबंधी तथा अपनी धन दौलत को परित्याग करके वन की तरफ चला जाता है तथा एकाकी जीवन व्यतीत करने लग जाता है और इस प्रकार से वह अपना मन अधिकतर भगवान के चरणों में लगाता है वह भिक्षा के द्वारा प्राप्त अनाज को खाकर अपना भरण-पोषण करता है तथा जंगल में प्राप्त फल तथा फूल इत्यादि को खाकर अपना भरण-पोषण करता है ऐसी स्थिति में उनके बच्चे भी उनका हालचाल ले सकते हैं और उनके खाने-पीने की उचित प्रबंध भी कर सकते हैं

4-सन्यास आश्रम (sanyas aasram)

50 वर्ष से 75 वर्ष पूरा होने के पश्चात व्यक्ति सन्यास आश्रम में प्रवेश करता है और उसका शरीर काफी जर्जर हो जाता हैजिसके बाद उसका जीवन और भी दूभर हो जाता है और उसका मन भगवान के चरणों में अधिकतर लगा हुआ रहता है इस वजह से वह अपने सगे संबंधी तथा सभी कार्यों को भूलकर ईश्वर के चरणों में अपना अपना मन लगाता है तथा अपने पुरुष होने के अंतिम लक्ष्य यानी मुक्ति को प्राप्त करने के लिए भगवान से याचना करता है और उनकी दिन रात प्रार्थना करता है और यह कामना करता है कि ईश्वर हमने आपके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुपालन करते हुए अपना पुरुष जीवन व्यतीत किया है इसके पश्चात हम अपने अंतिम लक्ष्य यानी मुक्ति की प्राप्ति के लिए आपसे विनती करते हैं और आप हमें 8400000 योनियों से छुटकारा प्रदान कर सकते हैं इस प्रकार से वह एक सन्यासी का वेश धारण करके जंगलों में निवास करता है तथा तपस्या करता है और लोगों के द्वारा दिए गए भोजन को वह ग्रहण करता है तथा भिक्षा मांगकर अपना जीवन यापन करता है

महत्त्व (value)

संयास आश्रम का मानव जीवन में बहुत ही ज्यादा महत्व है 75 वर्ष से ऊपर की आयु में व्यक्ति अपने घर परिवार धन दौलत और अहंकार को वह पूरी तरह से भूल जाता है तथा एक सन्यासी बन कर अपना जीवन व्यतीत करता है जिसके वजह से उसे ईश्वर की प्राप्ति होती है और मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य को वह प्राप्त करने में सक्षम होता है इसलिए सन्यास आश्रम काफी महत्वपूर्ण आश्रम होता है जो कि भगवान के स्मरण करने का सही समय होता है

आधुनिक समाज में मानव जीवन (human life in modern time)

हमने यहां पर आपकोमानव समाज से संबंधित आश्रम व्यवस्था के बारे में विस्तृत चर्चा की और चारों आश्रमों की विस्तृत जानकारी और उनके महत्व के बारे में भी आपको जानकारी प्रदान की लेकिन आपके मन में यह प्रश्न उठ रहा होगा कि इन चारों आश्रमों का अनुपालन क्या आधुनिक युग में हो रहा है या नहीं हो रहा है अतः हम आपको बताना चाहते हैं कि आधुनिक युग में इन आश्रमों का पालन बिल्कुल भी नहीं हो रहा है यह प्राचीन काल में काफी प्रचलित था और लोग इनका अनुपालन भी करते थे और अपना जीवन जीते हुए हुए मुक्ति को प्राप्त करते थे लेकिन आधुनिक युग में व्यक्ति की आयु अधिकतर 80 वर्ष की हो चुकी है और कोई भी व्यक्ति इन चारों आश्रमों का अनुपालन नहीं करता है जैसा कि आप सभी लोगों को मालूम होगा की जन्म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु ब्रह्मचर्य आश्रम में रहता है जिसमें ब्रह्मचारी का जीवन व्यतीत करना होता है लेकिन आधुनिक युग में इन सभी व्यवस्थाओं को कोई भी अनुपालन अनुपालन नहीं करता है और तमाम लोग ऐसे भी हैं जो कि उनका विवाह अट्ठारह वर्ष के पश्चात और 25 वर्ष के पहले भी हो जाता हैऔर वह अपना गृहस्थ जीवन जीते हुए अनेक प्रकार के अत्याचार और अन्याय को करके धन एकत्र करते हैं तथा उनका मन हमेशा अपने कमाए गए धन तथा अपने परिवार में लगा हुआ रहता है ऐसे मनुष्य चारों पुरुषार्थ ओं में से मात्र एक या दो पुरुषार्थ ओं की पूर्ति कर पाते हैं जो कि उन्हें अंतिम क्षणों में मुख्य लक्ष्य जोकि भगवान की प्राप्ति होती है उसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं और उसके पश्चात में फिर से 8400000 योनियों में भ्रमित होते रहते हैं आजकल 50 वर्ष पूरे होने के पश्चात भी कोई वन में जाना पसंद नहीं करता है क्योंकि उसका मन 50 वर्ष पश्चात भी लोभ लालच धन अत्याचार और अनाचार में लगा हुआ रहता है जिसके परिणाम स्वरुप वह अपनी धन-संपत्ति और परिवार तथा सगे संबंधियों को त्याग नहीं पाता है और जब उसके मरने का समय आता है उस समय जब यमदूत उसे गिरते हैं तो उसे अपने किए पर काफी पछतावा होता है और स्मरण होता है कि उसे अपने जीवन में क्या करना चाहिए था और उसने क्या-क्या किया है इत्यादि बातें स्मरण होते हुए वह नरक लोक को जाता है और फिर से वह 8400000 योनियों में पृथ्वी लोक पर भ्रमित होता रहता है

निष्कर्ष (conclusion)

संपूर्ण पोस्ट पढ़ने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमारा जीवन काफी अमूल्य है जिसे हमारे पूर्वजों के द्वारा बताए गए रास्ते पर चल के अपना जीवन धन्य बनाना चाहिए तथा आश्रम व्यवस्था इस कार्य में काफी मदद करता है जो कि एक से ही की तरह होता है और हमारे जीवन को एक सिरे से दूसरे सिरे पर चढ़ने का प्रोत्साहन देता है और हिम्मत देता है ऐसी स्थिति में जीवन जीते हुए व्यक्ति परम गति को प्राप्त होता है तथा अंतिम समय में भगवान के चरणों में उसे स्थान मिलता है चार पुरुषार्थ में जीवन जीते हुए मनुष्य अपना पुरुष होने का अर्थ प्राप्त करता है जिसे चार पुरुषार्थ कहा जाता है और वह चार पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम और मोक्ष होते हैं जिन्हें मानव जीवन मिला है उन्हें इन चार पुरुषार्थ ओं की पूर्ति करना अत्यंत आवश्यक होता है

shiva9532

My name is rahul tiwari and I am the owner and author of this blog. I am a full time blogger. I have studied B.Sc in computer science.

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